कितनी बुलंदियों पे सर-ए-दार आए हैं किसी मारका में अहल-ए-जुनूँ हार आए हैं घबरा उठे हैं ज़ुल्मत-ए-शब से तो बार-हा नाले हमारे लब पे शरर-बार आए हैं ऐ क़िस्सा-गो अज़ल से जो बीती है वो सुना कुछ लोग तेरे फ़न के परस्तार आए हैं पाई गुलों से आबला-पाई कि जब न दाद दीवाने हैं कि सू-ए-लब-ए-ख़ार आए हैं ग़म-ख़्वारियों की तह में दबी सी मसर्रतें यूँ मेरे पास भी मिरे ग़म-ख़्वार आए हैं पहुँचे हैं जब भी ख़ल्वत-ए-दिल में तो ऐ नदीम अक्सर हम अपने आप से बे-ज़ार आए हैं उस बज़्म में तो मय का कहीं ज़िक्र तक न था और हम वहाँ से बे-ख़ुद ओ सरशार आए हैं उस की गली में हम ने लुटा दी मता-ए-जाँ उस की गली से हम तो सुबुकसार आए हैं करते रहे हैं फ़न की परस्तिश तमाम उम्र महशर में कैसे कैसे गुनहगार आए हैं 'जज़्बी' जो हो सके तो मिरी हैरतों से पूछ किस तरह मेरे ज़ेहन में अशआर आए हैं