कितनी महफ़ूज़ ज़िंदगी थी कभी दुश्मनी थी न दोस्ती थी कभी अब फ़क़त क़हक़हे लगाता हूँ मेरी आँखों में भी नमी थी कभी सोच कर अब क़दम उठाता हूँ मेरी राहों में गुम रही थी कभी अब धुआँ है जो पी रहे हैं नम आग हर मोड़ पर लगी थी कभी अब तो बदला है अपना पैमाना जो बुरी है वही भली थी कभी था सफ़ेद-ओ-सियाह से वाक़िफ़ मेरी आँखों में रौशनी थी कभी अब तो तस्बीह ले के बैठे हैं हाथ में जिन के लबलबी थी कभी सब का महबूब एक था 'हमदम' शहर में एक ही गली थी कभी