किया इश्क़-ए-मजाज़ी ने हक़ीक़त आश्ना मुझ को बुतों ने ज़ुल्म वो ढाया कि याद आया ख़ुदा मुझ को दुआ जब दिल ने की कर दे ख़ुदा बे-मुद्दआ मुझ को दुआ-ए-बे-असर ने हाथ उठा कर दी दुआ मुझ को न रखना था कहीं का भी न रक्खा ज़ौक़-ए-हस्ती ने तमाशा करना था आख़िर तमाशा कर दिया मुझ को न मुझ से काम दुनिया को न मेरे काम की दुनिया दिल-ए-नाकाम तू ने रक्खा ये किस काम का मुझ को बहुत करता है वाइज़ गुफ़्तुगू जन्नत की दोज़ख़ की कहाँ पहुँचाता है देखूँ तो ये पहुँचा हुआ मुझ को अज़ाब-ए-ज़िंदगी आख़िर अज़ाब-ए-आख़िरत निकला हज़ारों बार मर-मर के यहाँ जीना पड़ा मुझ को फ़ज़ा हिम्मत-शिकन है 'ख़िज़्र' तो दिल हौसला-अफ़्ज़ा बताएँगे कहाँ तक अहल-ए-फ़न भी रास्ता मुझ को