कोई गर्दिश में है क्या दश्त से घर तक अब भी ख़ाक उड़ती है मिरी हद्द-ए-नज़र तक अब भी ले गई खींच के शायद उन्हें मिट्टी की महक उड़ के पहुँचे नहीं कुछ फूल शजर तक अब भी रिज़्क़ बन जाएँगे कुछ देर में तारीकी का महव-ए-परवाज़ हैं जो शम्स-ओ-क़मर तक अब भी अपनी बुनियाद पे क़ाएम हैं मिरे होश-ओ-हवास ख़ून चढ़ता है मिरे पाँव से सर तक अब भी जिन को पाने की तमन्ना है अज़ल से मिरे साथ हाथ पहुँचा नहीं उन बर्ग-ओ-समर तक अब भी खुल नहीं पाया मिरी रूह पे सहरा 'साजिद' या'नी महदूद हूँ मैं सैर-ओ-सफ़र तक अब भी