कोई किनाया कहीं और बात करते हुए कोई इशारा ज़रा दूर से गुज़रते हुए मिरे लहू की लपक में रहे वो हाथ वो पाँव कुछ आइने से कहीं डूबते उभरते हुए शरार-ए-बोसा ही उस संग-ए-लब से हो पैदा कि मेरे सर में कई लफ़्ज़ हैं ठिठुरते हुए न सख़्त-गीर था वो और न मैं ही बे-हिम्मत पर उस को हाथ लगाया है आज डरते हुए जलाएँगे नम-ए-साहिल पे कश्तियाँ अपनी इस आब-ज़ार-ए-तमाशा में पाँव धरते हुए गुज़र ही जाएगी सर से कहीं तो मौज-ए-हवस कभी तो शर्म उसे आएगी मुकरते हुए हवास में हैं कहीं ख़ौफ़ के नशेब ओ फ़राज़ जो ख़ुद से भागता हूँ राह में ठहरते हुए ये काम और तो अब कौन ही करेगा यहाँ समेटता भी रहूँ जिस्म को बिखरते हुए मुझे तो रंज था सब से कहीं ज़ियादा 'ज़फ़र' जो देख लेता मिरी सम्त भी वो मरते हुए