कू-ए-दुश्मन से उसे छुप के निकलते देखा हम ने नक़्श-ए-क़दम-ए-यार को चलते देखा हाए क्या हाल दम-ए-वस्ल हमारा होगा बोसा लेने में तुम्हें रंग बदलते देखा अब्र बन कर जो बरस पड़ने को आया वाइ'ज़ बे-तरह हम ने ख़ुम-ए-मय को उबलते देखा ये भी पीना है कोई चाल है ये भी कोई हर-क़दम पर उन्हें सौ बार सँभलते देखा यही आँखें हैं कि जिन में नहीं अब नाम को अश्क इन्हीं आँखों से कभी ख़ून उबलते देखा हश्र के रोज़ न ताब अब्र-ए-करम को आई मुझ गुनहगार को जब धूप में जलते देखा गेसू-ए-हूर कहो सब्ज़ा-ए-तुर्बत कैसा क़ब्र-ए-दुश्मन से धुआँ हम ने निकलते देखा कूचा-ए-इश्क़ में अल्लाह रे पा-मर्दी-ए-दिल ठोकरें खा के उसे हम ने सँभलते देखा ग़ैर के घर से झिजकते हुए तुम निकले थे रुकते देखा तुम्हें फिर छुप के निकलते देखा दिल में क्या जान थी क्या क़तरा-ए-ख़ूँ की थी बिसात मलते देखा उसे हाथों से मसलते देखा फूल लाले का खिला था कि शफ़क़ शाम की थी वस्ल की रात को भी रंग बदलते देखा कभी कुछ रात गए या कभी कुछ रात रहे हम ने इन पर्दा-नशीनों को निकलते देखा ख़ून-ए-दिल पर है अबस रश्क तिरी मेहंदी को अपनी ही आग में हम ने उसे जलते देखा दिल-ए-बेताब था या आग की चिंगारी थी किस क़दर जिल्द उन्हें पा-पोश से मलते देखा वाह क्या रंग है क्या ख़ूब तबीअत है 'रियाज़' हो ज़मीं कोई तुम्हें फूलते-फलते देखा