ये नहीं बर्क़ इक फ़रंगी है र'अद-ओ-बाराँ फ़ुसून-ए-जंगी है कोई दुनिया से क्या भला माँगे वो तो बेचारी आप नंगी है वाह दिल्ली की मस्जिद-ए-जामे जिस में बुर्राक़ फ़र्श-ए-संगी है हौसला है फ़राख़ रिंदों का ख़र्च की पर बहुत सी तंगी है लग गए ऐब सारे उस के साथ यूँ कहा जिस को मर्द बंगी है डरो वहशत के धूम-धाम से तुम वो तो इक देवनी दबंगी है जोगी-जी साहिब आप की भी वाह धर्म मूरत अजब को ढंगी है आप ही आप है पुकार उठता दिल भी जैसे घड़ी फ़रंगी है चश्म-ए-बद-दूर शैख़-जी साहिब क्या इज़ार आप के उटंगी है शैख़-सादी-ए-वक़्त है 'इंशा' तू 'अबू-बक्र-साद' ज़ंगी है