कोई अदा जो कहीं अपने-पन सी पाता हूँ दयार-ए-ग़ैर में ठंडक वतन सी पाता हूँ मैं जब भी तज्ज़िया करता हूँ तेरा ऐ दुनिया इस आईने में तुझे बद-चलन सी पाता हूँ ख़ुदा करे कि मिरे दोस्त ख़ैरियत से हों अजीब तरह की दिल में चुभन सी पाता हूँ बदलने वाला है शायद मिज़ाज मौसम का जबीन-ए-वक़्त को मैं पुर-शिकन सी पाता हूँ सुकून मिलता है यारों से माज़रत कर के तअल्लुक़ात में जब भी घुटन सी पाता हूँ ख़ुदा ही रक्खे मिरे कारवाँ की ख़ैर अब तो कि राहबर में अदा राहज़न सी पाता हूँ मैं दुश्मनों में नहीं दोस्तों में हूँ 'माजिद' यहाँ तो और ज़ियादा घुटन सी पाता हूँ