कोई बे-नाम ख़लिश उकसाए By Ghazal << मुसाफ़िरों के ये वहम-ओ-गु... राहज़न हूँ कि रहनुमा हूँ ... >> कोई बे-नाम ख़लिश उकसाए क्या ज़रूरी है तिरी याद आए तेरी आँखों के बुलावे की किरन क्यूँ मिरी राहगुज़र बन जाए ज़िंदगी दश्त-ए-सफ़र धूप ही धूप तेरे बिन कैसे कहाँ के साए Share on: