राहज़न हूँ कि रहनुमा हूँ मैं कौन जाने कि अस्ल क्या हूँ मैं वो जो इबरत का इक निशाँ ठहरे बाग़ वालों को जानता हूँ मैं मुझ से ख़ल्क़-ए-ख़ुदा लरज़ती है किस नौइयत का पारसा हूँ मैं सादगी को भी जिस पे रश्क आए इस तकल्लुफ़ की इंतिहा हूँ मैं किस ने देखा ये देखना मेरा दिल की आँखों से देखता हूँ मैं भेड़िये की निगाह है जिन पर ऐसी भेड़ों को हाँकता हूँ मैं