कोई भी बार-ए-गराँ दोश पर नहीं रखते सफ़र-पसंद हैं रख़्त-ए-सफ़र नहीं रखते वो ज़िंदा कब हैं जो अपनी ख़बर नहीं रखते अजीब हैं जो ज़रा भी हुनर नहीं रखते असीर-ए-हुस्न-ए-तवक्कुल मरीज़ हो कर भी उमीद-ए-मो'जिज़ा-ए-चारागर नहीं रखते नक़ीब-ए-अह्द-ए-सदाक़त हैं इस लिए हम लोग असास अपनी किसी ज़ुल्म पर नहीं रखते हमें ग़ुरूर है अपनी ही सरफ़राज़ी का हम अपने दोष पे बे-मग़्ज़ सर नहीं रखते फ़क़ीर-ए-फ़िक्र का घर बे-हिसार होता है हम अहल-ए-फ़क़्र हैं दीवार-ओ-दर नहीं रखते है अपनी सोच का सूरज से राब्ता ‘गुफ़्तार’ ख़ुदा का शुक्र है सर पर शजर नहीं रखते