तिरी कामयाबी मिरी कामयाबी बराबर नहीं यहाँ तक पहुँचने में मेहनत है मेरी मुक़द्दर नहीं ख़ुदा ने यहाँ कैसे-कैसों की झोली में क्या क्या दिया हमें मौत के वक़्त भी तेरी बाहें मयस्सर नहीं उसे अपनी ग़लती का एहसास होता रहा 'उम्र-भर मैं रुख़्सत हुआ था उसे चूम कर लड़-झगड़ कर नहीं उजाला बनाना तो था पर अंधेरा मिटाना न था नया 'इश्क़ करना था लेकिन पुराना भुला कर नहीं इसी नाम-ओ-सूरत का इक शख़्स इस घर में रहता तो है मगर ढूँढती हो जिसे तुम वो 'अर्से से घर पर नहीं