कोई भी दार से ज़िंदा नहीं उतरता है मगर जुनून हमारा नहीं उतरता है तबाह कर दिया अहबाब को सियासत ने मगर मकान से झंडा नहीं उतरता है मैं अपने दिल के उजड़ने की बात किस से कहूँ कोई मिज़ाज पे पूरा नहीं उतरता है कभी क़मीज़ के आधे बटन लगाते थे और अब बदन से लबादा नहीं उतरता है मुसालहत के बहुत रास्ते हैं दुनिया में मगर सलीब से ईसा नहीं उतरता है जुआरियों का मुक़द्दर ख़राब है शायद जो चाहिए वही पत्ता नहीं उतरता है