कोई भी ख़ुद को बदलता नज़र नहीं आता अज़ाब आएगा टलता नज़र नहीं आता ज़मीं को रोक लिया है कशिश ने सूरज की ये दिन तो रात में ढलता नज़र नहीं आता लगे है यूँ कि उगे हैं दरख़्त पत्थर के कोई भी फूलता फलता नज़र नहीं आता धुआँ भरा है मकाँ में सुलगते हैं दर-ओ-बाम मकीं तो आँख भी मलता नज़र नहीं आता बपा है जश्न मसीहा-नफ़स की आमद पर मरीज़ है कि सँभलता नज़र नहीं आता उभारते हैं हुदी-ख़्वाँ पुकारती है जरस मगर ये क़ाफ़िला चलता नज़र नहीं आता गिरे है बर्क़ सर-ए-तूर-ओ-दश्त-ए-सीना पर कोई शजर कहीं जलता नज़र नहीं आता