कोई दरख़्त कोई साएबाँ रहे न रहे बुज़ुर्ग ज़िंदा रहें आसमाँ रहे न रहे कोई तो देगा सदा हर्फ़-ए-हक़ की दुनिया में हमारे मुँह में हमारी ज़बाँ रहे न रहे हमें तो पढ़ना है मैदान-ए-जंग में भी नमाज़ मुअज़्ज़िनोंं के लबों पर अज़ाँ रहे न रहे हमें तो लड़ना है दुनिया में ज़ालिमों के ख़िलाफ़ क़लम रहे कोई तीर-ओ-कमाँ रहे न रहे ये इक़्तिदार के भूके ये रिश्वतों के वज़ीर बला से उन का ये हिन्दोस्ताँ रहे न रहे ख़ुदा करेगा समुंदर में रहनुमाई भी ये नाव बाक़ी रहे बादबाँ रहे न रहे