कोई हो सकता भी था हामिल नवा-ए-राज़ का आख़िर इक इक तार टूटा ज़िंदगी के साज़ का मुंतज़िर है इक जहाँ हुस्न-ए-करिश्मा-साज़ का अब उठा भी दीजिए पर्दा हरीम-ए-नाज़ का ज़िक्र मुझ से क्यों है सूर-ए-हश्र की आवाज़ का ये तो इक बिगड़ा हुआ नग़्मा है मेरे साज़ का उफ़ रे ये हुस्न-ए-तमाशा दोस्त का शौक़-ए-नुमूद कर दिया कुन कह के पर्दा फ़ाश हर्फ़-ए-राज़ का दिल ही दिल में रो के मिस्ल-ए-शम्अ' हम चुप रह गए क्या असर महफ़िल पे होता साज़-ए-बे-आवाज़ का हो अगर सच्ची तड़प मिट्टी में भी पड़ती है जाँ दिल है क्यों तालिब मसीह-ओ-ख़िज़्र के ए'जाज़ का सुब्ह होते होते आख़िर वो भी उठवाई गई राज़दाँ जुज़ शम्अ' था कौन उस हरीम-ए-नाज़ का रख ली उन नौ-ख़ेज़ कलियों ही ने कुछ जलवों की शर्म वर्ना क्या हश्र इस चमन में हो तुम्हारे राज़ का वा'दा-ए-जन्नत का 'मुस्लिम' किस लिए खाएँ फ़रेब है निगाहों में तसव्वुर इक बहार-ए-नाज़ का