बड़ी लतीफ़ कशिश थी हसीं पनाह में था खुली जो आँख तो मैं अपनी ख़्वाब-गाह में था हदीस-ए-अह्द-ए-मसर्रत मिरी निगाह में थी कि एक पैकर-ए-रा'ना दिल-ए-तबाह में था तुला हुआ था कभी जान लेने देने पर अजीब रंग-ए-वफ़ा उस के इंतिबाह में था हर एक सम्त थी उस की निगाह पत्थर की वो संग-दिल बरहना जो शाहराह में था मिरी हयात ही क़ातिल सही मगर 'मुतरिब' बड़े सुकून से मैं अपनी क़त्ल-गाह में था