कोई काफ़िर हमें समझे कि मुसलमाँ समझे हम तो ऐ इश्क़ तुझे हासिल-ए-ईमाँ समझे लाखों मसले हुए ग़ुंचे नहीं देखे हम ने चंद हँसते हुए फूलों को गुलिस्ताँ समझे ख़ुद-ब-ख़ुद वक़्त पे हो जाते हैं सामाँ क्यूँकर कुछ जो समझे तो हमें बे-सर-ओ-सामाँ समझे दावत-ए-आम है इक राह-ए-वफ़ा है मैं हूँ वो मिरे साथ चला आए जो आसाँ समझे बाग़बाँ की मिरे साहब-नज़री क्या कहना फूल गुलशन पे हँसे आप बहाराँ समझे हँस के मिल लेते हैं अहबाब यही काफ़ी है किस को फ़ुर्सत कि किसी का ग़म-ए-पिन्हाँ समझे ग़ुंचा-ओ-गुल के तबस्सुम की हक़ीक़त क्या है पहले काँटों से गुज़र जाए तो इंसाँ समझे वो ज़माने में ख़ुशी पा नहीं सकते 'शारिब' आँसुओं को जो इलाज-ए-ग़म-ए-दौराँ समझे