कोई महरम नहीं मिलता जहाँ में मुझे कहना है कुछ अपनी ज़बाँ में क़फ़स में जी नहीं लगता किसी तरह लगा दो आग कोई आशियाँ में कोई दिन बुल-हवस भी शाद हो लें धरा क्या है इशारात-ए-निहाँ में कहीं अंजाम आ पहुँचा वफ़ा का घुला जाता हूँ अब के इम्तिहाँ में नया है लीजिए जब नाम उस का बहुत वुसअ'त है मेरी दास्ताँ में दिल-ए-पुर-दर्द से कुछ काम लूँगा अगर फ़ुर्सत मिली मुझ को जहाँ में बहुत जी ख़ुश हुआ 'हाली' से मिल कर अभी कुछ लोग बाक़ी हैं जहाँ में