कोई मक़ाम-ए-सुकूँ रास्ते में आया नहीं हज़ार पेड़ हैं लेकिन कहीं भी साया नहीं किसे पुकारे कोई आहटों के सहरा में यहाँ कभी कोई चेहरा नज़र तो आया नहीं भटक रहे हैं अभी तक मुसाफ़िरान-ए-विसाल तिरे जमाल ने कोई दिया जलाया नहीं बिखर गया है ख़ला में किरन करन हो कर वो चाँद जो किसी पहलू में जगमगाया नहीं तरस गई है ज़मीं बादलों की सूरत को किसी नदी ने कोई गीत गुनगुनाया नहीं उजड़ गया था किसी ज़लज़ले में शहर-ए-वफ़ा न जाने फिर उसे हम ने भी क्यूँ बसाया नहीं 'क़तील' कैसे कटेगी ये दोपहर ग़म की मिरे नसीब में उन गेसुओं का साया नहीं