कोई मकीं भी न था उस मकाँ से लौटा हूँ ख़ुदा ही जानता है मैं कहाँ से लौटा हूँ हयात गुज़री थी किरदार जिस के गढ़ने में ज़लील हो के उसी दास्ताँ से लौटा हूँ न कोई नक़्श नज़र में न धूल कपड़ों पे समझ में कुछ नहीं आता कहाँ से लौटा हूँ जहाँ पे आ के मुकम्मल हुए वजूद तमाम अधूरा हो कि अकेला वहाँ से लौटा हूँ वो ख़ुशबूएँ तो मिरे ताक में ही थीं रक़्साँ तलाश कर कि जिन्हें गुलिस्ताँ से लौटा हूँ ज़मीन वालों ज़मीं की न दास्ताँ पूछो गुज़िश्ता रात ही मैं आसमाँ से लौटा हूँ जहाँ पे 'फ़ानी' को फ़ानी बनाया जाता है मैं अब के बार उसी आस्ताँ से लौटा हूँ