कोई मंज़र न मौसम सामने है मगर वो है कि हर दम सामने है मोहब्बत सर-बुलंदी चाहती है फिर इक आँचल का परचम सामने है कहीं ख़ुशबू कहीं झंकार सी है वही तो है जो पैहम सामने है मिरी आँखों से कब ओझल नहीं है वो इक लम्हा जो हर दम सामने है वो क्या शय थी ख़तों में बोलती थी ये क्या शय है मुजस्सम सामने है