कोई मुज़्दा न बशारत न दुआ चाहती है रोज़ इक ताज़ा ख़बर ख़ल्क़-ए-ख़ुदा चाहती है मौज-ए-ख़ूँ सर से गुज़रनी थी सो वो भी गुज़री और क्या कूचा-ए-क़ातिल की हवा चाहती है शहर-ए-बे-मेहर में लब-बस्ता ग़ुलामों की क़तार नए आईन-ए-असीरी की बिना चाहती है कोई बोले के न बोले क़दम उट्ठें न उठें वो जो इक दिल में है दीवार उठा चाहती है हम भी लब्बैक कहें और फ़साना बन जाएँ कोई आवाज़ सर-ए-कोह-ए-निदा चाहती है यही लौ थी कि उलझती रही हर रात के साथ अब के ख़ुद अपनी हवाओं में बुझा चाहती है अहद-ए-आसूदगी-ए-जाँ में भी था जाँ से अज़ीज़ वो क़लम भी मिरे दुश्मन की अना चाहती है बहर-ए-पामाली-ए-गुल आई है और मौज-ए-ख़िज़ाँ गुफ़्तुगू में रविश-ए-बाद-ए-सबा चाहती है ख़ाक को हम-सर-ए-महताब किया रात की रात ख़ल्क़ अब भी वही नक़्श-ए-कफ़-ए-पा चाहती है