क़दम क़दम पे तमन्ना-ए-इल्तिफ़ात तो देख ज़वाल-ए-इश्क़ में सौदागरों का हात तो देख बस एक हम थे जो थोड़ा सा सर उठा के चले इसी रविश पे रक़ीबों के वाक़िआत तो देख ग़म-ए-हयात में हाज़िर हूँ लेकिन एक ज़रा निगार-ए-शहर से मेरे तअ'ल्लुक़ात तो देख ख़ुद अपनी आँच में जलता है चाँदनी का बदन किसी के नर्म ख़ुनुक गेसुओं की रात तो देख अता क्या दिल-ए-मुज़्तर तो सी दिए मेरे होंट ख़ुदा-ए-कौन-ओ-मकाँ के तवहहुमात तो देख गुनाह में भी बड़े मा'रिफ़त के मौक़े हैं कभी कभी उसे बे-ख़दशा-ए-नजात तो देख