कोई नहीं कि यार की लावे ख़बर मुझे ऐ सैल-ए-अश्क तू ही बहा दे उधर मुझे या सुब्ह हो चुके कहीं या मैं ही मर चुकूँ रो बैठूँ इस सहर ही को मैं या सहर मुझे न दैर ही को समझूँ हूँ न काबा ये तिरा फिरता है इश्तियाक़ लिए घर-ब-घर मुझे मिन्नत तो सर पे तेशा की फ़रहाद तब मैं लूँ जब सर पटकने को न हो दीवार-ओ-दर मुझे क्या जाऊँ जाऊँ करता है जानाँ तो बैठ जा मैं देखूँ तुझ को और तू देख इक नज़र मुझे फिर कोई दम में आह ख़ुदा जाने ये फ़लक ले जावे किस तरफ़ को तुझे और किधर मुझे रोना कभी जो आँखों भी देखा न था 'हसन' सो अब फ़लक ने दिल का किया नौहागर मुझे