कोई नहीं था मेरे मुक़ाबिल भी मैं ही था शायद कि अपनी राह में हाइल भी मैं ही था अपने ही गिर्द मैं ने किया उम्र भर सफ़र भटकाया मुझ को जिस ने वो मंज़िल भी मैं ही था उभरा हूँ जिन से बार-हा मुझ में थे सब भँवर डूबा जहाँ पहुँच के वो साहिल भी मैं ही था आसाँ नहीं था साज़िशें करना मिरे ख़िलाफ़ जब अपनी आरज़ूओं का क़ातिल भी मैं ही था शब भर हर इक ख़याल मुख़ातिब मुझी से था तन्हाइयों में रौनक़-ए-महफ़िल भी मैं ही था दुनिया से बे-नियाज़ी भी फ़ितरत मिरी ही थी दुनिया के रंज ओ दर्द में शामिल भी मैं ही था मुझ को समझ न पाई मिरी ज़िंदगी कभी आसानियाँ मुझी से थीं मुश्किल भी मैं ही था मुझ में था ख़ैर ओ शर का अजब इम्तिज़ाज 'शाद' मैं ख़ुद ही हक़-परस्त था बातिल भी मैं ही था