कोई नज़ारा न ख़ुद से अलाहदा कीजे नज़र-नज़र में हैं जल्वे मुआइना कीजे नज़र को पहले जिला दे के आईना कीजे फिर उस के बा'द ख़ुदी का मुशाहिदा कीजे ख़ुदी ख़ुदा से जुदा हो तो बे-ख़ुदी अच्छी वजूद वहम है इस को अलाहदा कीजे नज़र से दूरी भी वज्ह-ए-हुज़ूरी-ए-दिल है हुज़ूर तज्रबा अच्छा है तज्रबा कीजे उन्ही का दर ही तो है बज़्म-ए-मुम्किनात तमाम जबीन-ए-शौक़ को फिर वक़्फ़-ए-बारगह कीजे सियाह बख़्त को चमकाना है अगर मंज़ूर फिर अपने नामा-ए-आमाल को सियह कीजे तमाम चश्म-ए-करम आम है ज़माने पर इधर भी चश्म-ए-करम अपनी गाह-गाह कीजे जो बे-तलब हो ख़ुशी उस का कीजिए मातम कभी तो लज़्ज़त-ए-ग़म को भी बा-मज़ा कीजे 'हयात' तब्अ'-ए-रवानी में कोई फ़र्क़ नहीं चमन तुम्हारा है जी भर के ज़मज़मा कीजे