कोई रफ़ीक़ बहम ही न हो तो क्या कीजे कभी कभी तिरा ग़म ही न हो तो क्या कीजे हमारी राह जुदा है कि ऐसी राहों पर रिवाज-ए-नक़्श-ए-क़दम ही न हो तो क्या कीजे हमें भी बादा-गुसारी से आर थी लेकिन शराब ज़र्फ़ से कम ही न हो तो क्या कीजे तबाह होने का अरमाँ सही मोहब्बत में किसी को ख़ू-ए-सितम ही न हो तो क्या कीजे हमारे शेर में रोटी का ज़िक्र भी होगा किसी किसी के शिकम ही न हो तो क्या कीजे