कोई सर्द हवा लब-ए-बाम चली फिर ख़्वाहिश-ए-बे-अंजाम चली क्या ख़ाक सुकूँ से नाव चले जब मौज ही बे-आराम चली वो बात जो सारी उम्र की थी बस साथ मिरे दो गाम चली इक हर्फ़-ए-ग़लत को छूते ही मैं मिस्ल-ए-ख़याल-ए-ख़ाम चली अब रात से मिल कर पलटूँ क्या जब सुब्ह से मैं ता-शाम चली ख़ुद ढह गई वो दीवार मगर गिरते हुए घर को थाम चली