कोई सूरत-आश्ना अपना न बेगाना कोई कुछ कहो यारो ये बस्ती है कि वीराना कोई सुब्ह-दम देखा तो सारा बाग़ था गुल की तरफ़ शम्अ' के ताबूत पर रोया न परवाना कोई ख़ल्वतों में रोएगी छुप-छुप के लैला-ए-ग़ज़ल इस बयाबाँ में न अब आएगा दीवाना कोई हम-नशीं ख़ामोश दीवारें भी सुनती हैं यहाँ रात ढल जाए तो फिर छेड़ेंगे अफ़्साना कोई