कोई तारा न दिखा शाम की वीरानी में याद आएगा बहुत बे-सर-ओ-सामानी में दम-ब-ख़ुद रह गया वो पुर्सिश-ए-हालात के बा'द आइना हो गई मैं आलम-ए-हैरानी में दिल सलामत रहे तूफ़ाँ से तसादुम में मगर हाथ से छूट गया हाथ परेशानी में सहल करती मैं तख़ातुब में मुकरना तुझ से मुश्किलें और थीं इस राह की आसानी में अब तिरी याद जो आए भी तो यूँ आती है जैसे काग़ज़ की कोई नाव चले पानी में ऐसे आलम में मिरी नींद का आसेब न पूछ ख़्वाब माँगे हैं तिरी चश्म की निगरानी में खींच रखती है मिरे मिरे पाँव को दहलीज़ तलक कोई ज़ंजीर है इस घर की निगहबानी में