कोई उस ज़ालिम को समझाता नहीं वो सितम करने से बाज़ आता नहीं दश्त-ए-ग़म में कब मिरा नक़्श-ए-क़दम हर क़दम पे आँख दिखलाता नहीं दर्द-ए-फ़ुर्क़त से ज़बाँ दाँतों में है क्या कहूँ कुछ भी कहा जाता नहीं चश्म-ए-दिल से देख उसे तू देख ले चश्म-ए-ज़ाहिर से नज़र आता नहीं सब्र-ए-शौक़-ए-वस्ल-ए-जानाँ क्या करूँ पर लगा कर भी उड़ा जाता नहीं कब ख़याल-ए-ज़ुल्फ़ में हर रात को दिल पे मेरे साँप लहराता नहीं गुल से निस्बत किया तिरे रुख़्सार को ये तो वो गुल है जो कुम्हलाता नहीं दर्द-ए-फ़ुर्क़त से है अब होंटों पे दम फिर भी ज़ालिम को तरस आता नहीं जान ली है जल्वा-ए-रुख़सार ने क़ब्र की ज़ुल्मत से घबराता नहीं हुस्न की ख़ुद्दारियाँ तो देखिए बे-ख़ुदी में भी वो हाथ आता नहीं वो नहीं आते तो नादिर क्या गला होश जब दो दो दोपहर आता नहीं