कोई वाक़ि'आ हो या हादिसा कहूँ कैसे मैं कि बुरा हुआ कि कहीं भी कुछ भी कभी भी क्या है बिना ख़ुदा की रज़ा हुआ मिरा जुर्म मैं ने छुपा लिया भले ही तमाम जहान से पड़ा बोझ ऐसा ज़मीर पर कि गुनाह ख़ुद है सज़ा हुआ न किसी ने देखी शगुफ़्तगी न किसी ने उस का ज़वाल ही वो जो फूल हाए उजाड़ में खिला और खिल के फ़ना हुआ ये जो माँग माँग के ख़िलअतें मिरे दोस्त तू ने बटोर लीं तिरा मर्तबा भले बढ़ गया तिरा क़द कहाँ है बड़ा हुआ रहीं रौनक़ें 'सदा' रौनक़ें मिरे रंज-ओ-ग़म के दयार में भरा एक ज़ख़्म अगर कभी तो इक और ज़ख़्म हरा हुआ