इक ए'तिमाद अजब सा यक़ीं पे रखता हूँ वो क्या है मैं जिसे अपनी जबीं पे रखता हूँ यही तो बात हुई जा रही है मेरे ख़िलाफ़ कहीं पे मिलती है इक शय कहीं पे रखता हूँ जो चीज़ देखने की है वो बार बार रहे मैं इस तरह का तमाशा ज़मीं पे रखता हूँ ग़ुबार होती हुई जा रही है ये दुनिया है हाँ का शाइबा जिस को नहीं पे रखता हूँ किसे ख़बर है ये किस वक़्त काम आ जाए है ख़ाक ख़ाक जिसे आस्तीं पे रखता हूँ हवा हो या कि न हो 'तूर' मैं चराग़-ए-इश्क़ हूँ चाहता जहाँ रखना वहीं पे रखता हूँ