कू-ब-कू फ़ितरत-ए-आहू लिए फिरती है मुझे मुज़्तरिब अपनी ही ख़ुशबू लिए फिरती है मुझे वहशत-ए-दिल का सबब ख़ुद मिरा अपना-पन है मेरे अंदर से उठी हू लिए फिरती है मुझे चाँद-रातों में कहीं अक्स कोई देखा था एक वहशत सी लब-ए-जू लिए फिरती है मुझे मौसम-ए-गुल से तआ'रुफ़ का नतीजा मालूम शबनम अब सूरत-ए-आँसू लिए फिरती है मुझे जुज़्व हूँ कुल में समाउँ तो क़रार आ जाए एक तफ़रीक़-ए-मन-ओ-तू लिए फिरती है मुझे