क्यूँ चुप हैं वो बे-बात समझ में नहीं आता ये रंग-ए-मुलाक़ात समझ में नहीं आता क्या दाद-ए-सुख़न हम तुम्हें दें हज़रत-ए-नासेह है सौ की ये इक बात समझ में नहीं आता शैख़ और भलाई से करे तज़्किरा तेरा ऐ पीर-ए-ख़राबात समझ में नहीं आता साया भी शब-ए-हिज्र की ज़ुल्मत में छुपा है अब किस से करें बात समझ में नहीं आता मुश्ताक़-ए-सितम आप हैं मुश्ताक़-ए-अजल हम फिर क्यूँ ये रुका हात समझ में नहीं आता रोका उन्हें जाने से सर-ए-शाम तो बोले क्यूँ करते हो तुम रात समझ में नहीं आता दिल एक है और इस के तलबगार हज़ारों दें किस को ये सौग़ात समझ में नहीं आता क्यूँ-कर कहूँ 'अहसन' कि अदू दोस्त है मेरा हो नेक वो बद-ज़ात समझ में नहीं आता