क्यूँ कह के दिल का हाल उसे बद-गुमाँ करूँ ये राज़ वो नहीं है जिसे मैं बयाँ करूँ मुझ को ये ज़िद कि वस्ल का इक़रार तुम से लूँ तुम को ये हट कि मैं न कभी तुझ से हाँ करूँ ये कह रही है मुझ से किसी की निगाह-ए-शर्म फ़ुर्सत अगर हया से मिले शोख़ियाँ करूँ तू मुझ को आज़मा के वफ़ा-दारियों में देख मैं बेवफ़ाइयों में तिरा इम्तिहाँ करूँ उकता गया है शरअ की पाबंदियों से जी दिल चाहता है बैअत-ए-पीर-ए-मुग़ाँ करूँ 'बेख़ुद' रफ़ीक़ है न कोई हम-तरीक़ है दिल पर जो कुछ गुज़रती है किस से बयाँ करूँ