सदा ये किस की है जो दूर से बुलाए मुझे क़रीब जाऊँ तो कुछ भी नज़र न आए मुझे मैं बुझते बुझते धुएँ की लकीर छोड़ूँगा ये बाद-ए-तुंद ज़रा सोच कर बुझाए मुझे ग़ुरूब के नहीं आसार ये तो फिर क्या हैं कि जिस्म से बड़े लगते हैं अब तो साए मुझे जला हो धूप में और ख़ाल-ओ-ख़द न बिगड़े हों भरे जहाँ में वो इक शख़्स तो दिखाए मुझे किसी के लम्स से कुंदन मैं हो तो सकता हूँ मगर ये शर्त कोई हाथ तो लगाए मुझे