कुछ अब के जंग पे उस की गिरफ़्त ऐसी थी दर-अस्ल था वही फ़ातेह शिकस्त ऐसी थी ख़ुश-आमदीद नई रौशनी को क्यूँ कहती हमारी क़ौम क़दामत-परस्त ऐसी थी हवास-ओ-होश कोई भी न रख सका क़ाएम हवा-ए-ताज़ा भी शो'ला-ब-दस्त ऐसी थी नफ़स नफ़स को हम अपना गवाह करने लगे हमारे सम्त सदा-ए-अलस्त ऐसी थी शनाख़्त कर न सका आइना-नज़र भी उसे हर एक शाख़-ए-बदन लख़्त लख़्त ऐसी थी हज़ार रंग के जल्वों से थी फ़ज़ा मामूर गुज़िश्ता रात 'मुबारक' नशिस्त ऐसी थी