कुछ अजब ये बारगाह-ए-इश्क़ का दस्तूर है जितना जो मुख़्तार है उतना ही वो मजबूर है मौत पर क़ुदरत है जीने का नहीं मक़्दूर है तू ही दर्द-ए-दिल बता अब क्या तुझे मंज़ूर है हो के मुख़्तार इख़्तियार-ए-ख़ैर-ओ-शर से दूर है इतनी क़ुदरत पर भी इंसाँ किस क़दर मजबूर है कितना पुर-हैरत है मंज़र आस्तान-ए-यार का दूर से नज़दीक-तर नज़दीक से फिर दूर है लज़्ज़त-ए-ज़ौक़-ए-असीरी है असीरी का सबब वर्ना चाहें तो क़फ़स से आशियाँ क्या दूर है गुम हुआ हूँ शौक़-ए-मंज़िल में कुछ इस अंदाज़ से ये नहीं मा'लूम मंज़िल मुझ से कितनी दूर है वो तसव्वुर से न जाएँ जान जाए यार है मुझ को ये भी बे-ख़ुदी-ए-इश्क़ में मंज़ूर है एक वो हैं जिन की तूफ़ाँ में है साहिल पर नज़र डूबने वाले को साहिल से भी साहिल दूर है किस से हो 'अफ़्क़र' उमीद-ए-चारासाज़ी दहर में जो भी इस दुनिया में है मजबूर है मजबूर है