कुछ अनोखे हैं खेल प्यार के देख जीत मक़्सूद हो तो हार के देख हर तरफ़ सुर्ख़ ज़र्द नीले फूल ठाठ ये मौसम-ए-बहार के देख दर्द अख़्तर-शुमारी बेताबी ये नज़ारे भी इंतिज़ार के देख तू ने नादाँ उसे क़ुबूल किया अपने कंधों से बोझ उतार के देख ग़ैर मुमकिन है उन से छुटकारा सिलसिले जब्र-ओ-इख़्तियार के देख अपने रब को क़रीब पाएगा तू किसी दिन उसे पुकार के देख लोग मजबूर जुब्बा-साई पर शो'बदे साहिब-ए-मज़ार के देख पूछते हैं कि क्या तिरी ख़िदमात कैसे नख़रे हैं अहल-ए-दार के देख