कुछ भी मियान-ए-दूद दिखाई नहीं दिया हाकिम तुझे जुमूद दिखाई नहीं दिया आया ख़याल 'मीर' 'तक़ी' 'मीर' का मुझे अपना कहीं वजूद दिखाई नहीं दिया तहरीक मेरे जज़्बों को इस से मिले सदा क्यों जल्वा-ए-हसूद दिखाई नहीं दिया बदला सभी ने रंग तो ये भी बदल गया चर्ख़-ए-कुहन कबूद दिखाई नहीं दिया सब फ़ासले उबूर निगाहों ने कर लिए चारों तरफ़ उमूद दिखाई नहीं दिया दुश्मन की सफ़ में जिस से मचे खलबली सदा वो मंज़र-ए-सुजूद दिखाई नहीं दिया हर शय गुज़र रही है तग़य्युर से दोस्तो कुछ भी तो बे-नुमूद दिखाई नहीं दिया मैं जिस के आस-पास रहा उम्र भर 'वली' उस को मिरा वजूद दिखाई नहीं दिया