कुछ भी तो यहाँ हस्ब-ए-मरातिब नहीं लगता और शिकवा-ए-हालात मुनासिब नहीं लगता क्यों उस से कहें कुछ कि जो सुन के भी रहे चुप ऐसा तो मुख़ातिब भी मुख़ातिब नहीं लगता आता भी नहीं सामने करता भी नहीं बात महबूब कहाँ वो तो मुसाहिब नहीं लगता इबलीस चुरा लाया है क्या लौह-ओ-क़लम भी वो मालिक-ए-तक़दीर ये कातिब नहीं लगता इंसान से इंसाँ का तआ'रुफ़ भी नहीं है सूरत से कोई सादिक़-ओ-काज़िब नहीं लगता शर जीत गया हार गया ख़ैर यहाँ भी दिल अब तो मोहब्बत का भी तालिब नहीं लगता जिस दर्द की दुनिया में दवाएँ नहीं मिलतीं उस दर्द का इज़हार मुनासिब नहीं लगता