कुछ दर्जा और गर्मी-ए-बाज़ार हो बुलंद दिल बेचिए कि ज़ौक़-ए-ख़रीदार हो बुलंद बाब-ए-क़ुबूल बंद है दस्त-ए-तलब पर अब रब चाहता है पा-ए-तलबगार हो बुलंद झुक जाएगा सुबू भी कोई जाम तो उठाए दाना है मुंतज़िर कोई मिंक़ार हो बुलंद देखी थी जिस ने प्यास वो पानी तो बह चुका इम्काँ नहीं कि परचम-ए-इंकार हो बुलंद नाख़ून भेड़ियों के तो बढ़ते ही जाते हैं कोई कमाँ उठे कोई तलवार हो बुलंद मुझ को ब-क़द्र-ए-तेशा नहीं संग-ए-रहगुज़ार 'अरशद' मिरे लिए कोई कोहसार हो बुलंद