कुछ हश्र से कम गर्मी-ए-बाज़ार नहीं है वो जिंस हूँ मैं जिस का ख़रीदार नहीं है इस रात के गम्भीर अँधेरे में है क्या क्या हासिल तुझे पर दीदा-ए-बेदार नहीं है मुमकिन हो तो सीने में उतर कर तो मिरे देख वो लाश हूँ मैं जिस का अज़ा-दार नहीं है इक तेरे तग़ाफ़ुल ने कमर तोड़ के रख दी वर्ना ग़म-ए-दुनिया तो मुझे बार नहीं है हँसता है मिरे सीना-ए-सद-चाक पे क्या क्या वो जिस के गरेबान में इक तार नहीं है दिल ख़ूगर-ए-ग़म कौन सा ग़म पा के जियेगा वर्ना तुझे पाना मुझे दुश्वार नहीं है किस मुँह से अमाँ चाहूँगा सूरज से दोबारा सद-शुक्र कि याँ साया-ए-दीवार नहीं है चाहेगा किसे किस का वफ़ादार रहेगा ये दिल जिसे ख़ुद से भी अभी प्यार नहीं है क्या लुत्फ़ है रखता है सर-ए-लुत्फ़-ओ-करम भी 'शोहरत' कि तिरे ग़म का सज़ा-वार नहीं है