कुछ इस तरह से गुज़ारी है ज़िंदगी मैं ने हर एक साँस को समझा है आख़िरी मैं ने समझ गया वहीं राज़-ए-विसाल जब देखा हबाब तेरा मआ'ल-ए-शिकस्तगी मैं ने करिश्मा-ए-मय-ए-तौहीद ऐ तआ'ल-अल्लाह सुरूर है मिरे साक़ी को और पी मैं ने लगा के उन की मोहब्बत में जान की बाज़ी तमाम दौलत-ए-कौनैन जीत ली मैं ने किसी का राज़ समझता गया जहाँ तक भी समझ में आया कि समझा न कुछ अभी मैं ने अना ज़बाँ से न कहते न दार पर खिंचते किया है क़हर ये मंसूर आप की मैं ने है मावारा-ए-सुख़न 'बर्क़' गुफ़्तुगू मेरी ख़मोश रह के भी अक्सर है बात की मैं ने