कुछ इस तरह से निज़ाम-एॉगुल-ओ-बहार चले कि ए'तिबार-ए-मोहब्बत का कारोबार चले निसार दिल को तो पहले ही कर चुके थे हम बस एक जान थी वो आज तुझ पे वार चले हुआ न आज भी हासिल हमें तिरा दीदार हम आज भी तिरे कूचे से अश्क-बार चले सुकूँ यहाँ भी मयस्सर न हो सका दिल को तुम्हारी बज़्म में आ कर भी बे-क़रार चले दिल-ओ-निगाह हैं इक मस्त-ए-नाज़ के बस में दिल-ओ-निगाह पे अब किस का इख़्तियार चले रहेंगे हम शजर-ए-साया-दार की सूरत रियाज़-ए-दहर में बाद-ए-ख़िज़ाँ हज़ार चले ख़िज़ाँ-ए-सिफ़त तिरी महफ़िल में आए थे लेकिन हम अंजुमन से तिरी सूरत-ए-बहार चले चले 'अज़ीम' कुछ इस तरह बज़्म से उठ कर कि जैसे शहर-ए-निगाराँ से शहरयार चले