कुछ नज़र आता नहीं है वो उजाला कर दिया सब ही अपना आप भूले वो तमाशा कर दिया कान भी पड़ती नहीं है अब तो आवाज़-ए-ज़मीर खोखले ज़ेहनों ने इतना शोर बरपा कर दिया हाथ ख़ाली हैं हमारे और कुछ रब्ब-ए-जलील तू ने जो कुछ भी लिखा था हम ने पूरा कर दिया मसअले जैसे चटानें रहनुमा जैसे हवा वक़्त ने कितने फ़लक-बोसों को बौना कर दिया चुनता फिरता हूँ मैं अपने-आप वही रात दिन ज़िंदगी ने यूँ बिखेरा रेज़ा रेज़ा कर दिया