कुछ तुझ को ख़बर है हम क्या क्या ऐ शोरिश-ए-दौराँ भूल गए वो ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ भूल गए वो दीदा-ए-गिर्यां भूल गए ऐ शौक़-ए-नज़ारा क्या कहिए नज़रों में कोई सूरत ही नहीं ऐ ज़ौक़-ए-तसव्वुर क्या कीजे हम सूरत-ए-जानाँ भूल गए अब गुल से नज़र मिलती ही नहीं अब दिल की कली खिलती ही नहीं ऐ फ़स्ल-ए-बहाराँ रुख़्सत हो हम लुत्फ़-ए-बहाराँ भूल गए सब का तो मुदावा कर डाला अपना ही मुदावा कर न सके सब के तो गरेबाँ सी डाले अपना ही गरेबाँ भूल गए ये अपनी वफ़ा का आलम है अब उन की जफ़ा को क्या कहिए इक निश्तर ज़हर-आगीं रख कर नज़दीक-ए-रग-ए-जाँ भूल गए