यूँ संग-ए-इंतिज़ार से कब तक बंधे रहें दीवार-ए-ना-रसाई ही क्यूँ देखते रहें गुज़रे न कोई ज़ूद-फ़रामोश उम्र-भर और बे-सबब गली के दरीचे खुले रहें तुम से गिला-गुज़ार है अपनी ये बे-घरी कब तक तुम्हारे ख़्वाब से बाहर पड़े रहें हालत वही है आज भी हम संग-ओ-ख़िश्त की रख दे कोई जहाँ पे वहीं पर धरे रहें यूँही खड़े रहें किसी मंज़िल की आस में गर्द-ए-मलाल-ए-हिज्र से रस्ते अटे रहें पूछे मिरे मसीहा-नफ़स से कोई 'नईम' ताक़-ए-बदन में ज़ख़्म कहाँ तक जले रहें